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ग़ज़ल
वो सज्दे जिन से बरसों हम ने का'बे को सजाया है
जो बुत-ख़ाने को मिल जाएँ तो फिर बुत-ख़ाना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
ज़ियारत-गाह-ए-अहल-ए-अज़्म-ओ-हिम्मत है लहद मेरी
कि ख़ाक-ए-राह को मैं ने बताया राज़-ए-अलवंदी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
थे ख़ाक-ए-राह भी हम लोग क़हर-ए-तूफ़ाँ भी
सहा तो क्या न सहा और किया तो क्या न किया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
कभी तो फ़स्ल आएगी जहाँ में मेरे होने की
तिरी ख़ाक-ए-बदन में ख़ुद को बोना चाहता हूँ मैं
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
ताबिश कानपुरी
ग़ज़ल
फ़लक ऐ काश हम को ख़ाक ही रखता कि इस में हम
ग़ुबार-ए-राह होते या कसू की ख़ाक-ए-पा होते
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
वो मिले अगर तो उसे कहूँ ऐ गुलाब शख़्स
कोई तुझ सा क्या तिरी ख़ाक-ए-पा नहीं हो सका
मुबारक सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
ख़ीरा न कर सका मुझे जल्वा-ए-दानिश-ए-फ़रंग
सुर्मा है मेरी आँख का ख़ाक-ए-मदीना-ओ-नजफ़
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ख़ाक-ए-रह-ए-जानाँ पर कुछ ख़ूँ था गिरौ अपना
इस फ़स्ल में मुमकिन है ये क़र्ज़ उतर जाए