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ग़ज़ल
क़ामत-ए-जाँ को ख़ुश आया था कभी ख़िलअत-ए-इश्क़
अब इसी जामा-ए-सद-चाक से ख़ौफ़ आता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर
हम तो सरकार के मद्दाह हैं ख़िलअत के बग़ैर
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
हैं ख़ुदावंदान-ए-दुनिया हम तही-दस्तों से हेच
दिल को हसरत थी तो हम जैसों से ख़िलअत माँगता
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
हमारे कान लफ़्ज़-ए-बेवफ़ा सुन ही नहीं सकते
ये ख़िलअत तो उदू के वास्ते सरकार रहने दें