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ग़ज़ल
सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
वो यूँ शीशे को हर पत्थर से टकराया नहीं करते
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
तिरे मस्लक में क्या इतना भी समझाया नहीं जाता
फ़क़ीरों और दरवेशों से टकराया नहीं जाता
नवाज़ असीमी
ग़ज़ल
वो नाला फ़लक से टकराया वो 'आरज़ू' इक तारा टूटा
दुश्मन की तरफ़ जो लपका था शोला वो मुझी पर आ के गिरा
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
हम पे ही सदियों से हैं ज़ुल्म-ओ-सितम जब्र-ओ-अलम
और हमें ही मोरिद-ए-इल्ज़ाम ठहराया गया