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ग़ज़ल
साफ़ इज़हार हो और वो भी कम-अज़-कम दो बार
हम वो आक़िल हैं जिन्हें एक इशारा कम है
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
मुज़्तर हूँ किस का तर्ज़-ए-सुख़न से समझ गया
अब ज़िक्र क्या है सामा-ए-आक़िल को थामना
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
वो जिंस नहीं ईमान जिसे ले आएँ दुकान-ए-फ़ल्सफ़ा से
ढूँडे से मिलेगी आक़िल को ये क़ुरआँ के सिपारों में
ज़फ़र अली ख़ाँ
ग़ज़ल
सड़ी दीवाना सौदाई जो चाहे सो कहे दुनिया
हक़ीक़त-बीं मगर 'मज्ज़ूब' को आक़िल समझते हैं