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ग़ज़ल
हुज़ूर-ए-दावर-ए-महशर क़यामत-ख़ेज़ सामाँ था
हज़ारों हाथ थे और एक क़ातिल का गिरेबाँ था
राजा नौशाद अली ख़ान
ग़ज़ल
मोहब्बत करने वालों का यही अंजाम होता है
तड़पना उन की क़िस्मत में तो सुब्ह-ओ-शाम होता है
राजा मेहदी अली ख़ाँ
ग़ज़ल
राजा मेहदी अली ख़ाँ
ग़ज़ल
आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
हमारी बेकसी को देख कर सारा जहाँ रोया