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ग़ज़ल
अज़्म-ए-नौ जुरअत-ए-साबिक़ का सहारा ले कर
फिर बदलना है ज़माने का निज़ाम ऐ साक़ी
सय्यद सिद्दीक़ हसन
ग़ज़ल
उस बज़्म-ए-सुख़न में हम क्या पहुँचे कि शोर उट्ठा
लो 'अज़्म' कोई ज़ख़्मी तहरीर उठा लाया
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
उठो 'अज़्म' इस आतिश-ए-शौक़ को सर्द होने से रोको
अगर रुक न पाए तो कोशिश ये करना धुआँ खो न जाए
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
'अज़्म' इस अर्सा-ए-ना-मुरादी से घबरा के ये मत कहो
ऐसी बे-रंग सी ज़िंदगी किस लिए किस जज़ा के लिए
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
ले कर उठा हूँ फिर से मैं इक और अज़्म-ए-नौ
'आज़िम' के नाम से भी तो जाना गया हूँ मैं
मुन्ने ख़ाँ आज़िम
ग़ज़ल
सूरत-ए-बर्क़-ए-तपाँ शो'ला-फ़गन उठ्ठे हैं
अज़्म-ए-नौ ले के जवानान-ए-वतन उठ्ठे हैं
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
रिवायात-ए-कुहन को अज़्म-ए-नौ ख़ातिर में क्या लाए
ज़मीर-ए-कारवाँ पाबंद-ए-मीर-ए-कारवाँ क्यूँ हो
एजाज़ वारसी
ग़ज़ल
सुना रहे हो यूँ वहशत में हाल-ए-ग़म जो 'अज़्म'
हुआ वो नाला-ए-दिल दर्द का बयाँ न हुआ
अब्दुल ग़फ़्फ़ार अज़्म
ग़ज़ल
'अहद-ए-नौ में कुछ नहीं मिलता है क़ीमत के बग़ैर
अब मसीहा ने रविश अपनी पुरानी छोड़ दी
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
जला के कश्तियाँ जब अज़्म-ए-नौ के साथ बढ़े
जो हो रही थी मुसलसल वो मात रुक सी गई