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ग़ज़ल
मुझ से लगे हैं इश्क़ की अज़्मत को चार चाँद
ख़ुद हुस्न को गवाह किए जा रहा हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
अश्क-ए-रवाँ की आब-ओ-ताब कर न अवाम में ख़राब
अज़्मत-ए-इश्क़ को समझ गिर्या-ए-ग़म हँसी नहीं