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ग़ज़ल
जफ़ा की एक सी रस्में ही इंसाँ का मुक़द्दर हैं
किसी कूफ़ा में जीना हो या कि बग़दाद में रहना
नून मीम दनिश
ग़ज़ल
इस भरे बाज़ार इस बग़दाद से गुज़रा हूँ मैं
मैं यहाँ भूका हूँ मुझ को भी दफ़ीना चाहिए
मरातिब अख़्तर
ग़ज़ल
मोहम्मद इज़हारुल हक़
ग़ज़ल
ज़माने भर में अपने नाम का डंका भी बजता था
पर उजड़े यूँ कि हम तो सूरत-ए-बग़दाद हो बैठे