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ग़ज़ल
निगह रख दी ज़बाँ रख दी मताअ'-ए-क़ल्ब-ओ-जाँ रख दी
मिटा कर अपनी हस्ती पेश-ए-संग-ए-आस्ताँ रख दी
नईम हामिद अली
ग़ज़ल
अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है
ब'अद-अज़ाँ सर हल्क़ा-ए-पैग़मबराँ को इश्क़ है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स
करते हैं बहुत से तिरे हम-शक्ल जुदा रक़्स
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
ये बज़्म-ए-मय है याँ कोताह-दस्ती में है महरूमी
जो बढ़ कर ख़ुद उठा ले हाथ में मीना उसी का है
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
क्या है साकिन कोई कह सकता है क्या चल रहा है
दश्त-ए-तस्वीर में नक़्श-ए-कफ़-ए-पा चल रहा है
अली अरमान
ग़ज़ल
जब अब्र-ए-मै-कदा-बर-दोश सेहन-ए-बाग़ में आए
उसी को कहते हैं फ़रज़ाना जो दीवाना होता है
बेदिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
उस के ग़म को ग़म-ए-हस्ती तू मिरे दिल न बना
ज़ीस्त मुश्किल है उसे और भी मुश्किल न बना