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ग़ज़ल
मैं आ पहुँचा हूँ ऐ 'बानी' अजब अंधी जगह माना
है अब भी एक रस्ता जो सुझाई साफ़ देता है
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
खा ग़ज़ब-ग़ुस्सा छुपा ऐब-ए-रफ़ीक़-ओ-आश्ना
काट रब्त-ए-हम-नशीन-ए-बद कि है इस में ज़ियाँ
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मुख़्तलिफ़ हैं और मिले रहते हैं बाहम रोज़-ओ-शब
ख़ाक बाद ओ आतिश ओ आब-ए-रवाँ को इश्क़ है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
शाम के मस्कन में वीराँ मय-कदे का दर खुला
बाब गुज़री सोहबतों का ख़्वाब के अंदर खुला
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा