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ग़ज़ल
एक परी की ज़ुल्फ़ों में यूँ फँसा हुआ है चाँद
हम को लगता है बादल में छुपा हुआ है चाँद
बदीउज़्ज़माँ ख़ावर
ग़ज़ल
सड़क पे चलते फिरते दौड़ते लोगों से उकता कर
किसी छत पर मज़े में बैठे बंदर देख लेता हूँ
मोहम्मद अल्वी
ग़ज़ल
करोड़ों का है ठेका ख़र्च होते हैं मगर लाखों
ये बंदर-बाँट सरकारी तो पहले से भी बढ़ कर है
कृष्ण प्रवेज़
ग़ज़ल
इंसानों के कर्तब देख के 'राहिब' पास के जंगल में
नीम के पेड़ की शाख़ पे बैठा नटखट बंदर चौंक पड़ा
इमरान राहिब
ग़ज़ल
बहार आई न छूटे हम क़फ़स से हम-सफ़ीर अपने
चमन में चहचहे करते हैं और धूमें मचाते हैं