नज़र में मुद्दतों इबरत का मंज़र बैठ जाता है
नज़र में मुद्दतों इबरत का मंज़र बैठ जाता है
सफ़-ए-फ़ुक़रा में जब कोई तवंगर बैठ जाता है
तज़ाद-ए-बाहमी हो भाइयों में इक तबाही है
हों दीवारें अगर कच्ची तो फिर घर बैठ जाता है
पराए हो गए बेटे न पूछें लाग़री में अब
परेशाँ बाप बूढ़ा सर पकड़ कर बैठ जाता है
ज़मीर-ओ-आबरू ख़ुद्दारियाँ सब बेची जाती हैं
बिके ज़न मर्द दरवाज़े के बाहर बैठ जाता है
शराकत की कमाई है तो क्यों लड़ कर गँवाते हो
तराज़ू ले के मुंसिफ़ बन के बंदर बैठ जाता है
करम है लोक-शाही का सियासत का करिश्मा है
करोड़ों की कमाई करके लीडर बैठ जाता है
थकन को भूल कर चलना ही 'अनवर' ज़िंदगानी है
वो मंज़िल पा नहीं सकता जो थक कर बैठ जाता है
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