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ग़ज़ल
मुझे छोड़ दे मिरे हाल पर तिरा क्या भरोसा है चारा-गर
ये तिरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर मिरा दर्द और बढ़ा न दे
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
भरोसा किस क़दर है तुझ को 'अख़्तर' उस की रहमत पर
अगर वो शैख़-साहिब का ख़ुदा निकला तो क्या होगा
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
हो के मायूस-ए-वफ़ा तर्क-ए-वफ़ा तो कर लूँ
लेकिन इस तर्क-ए-वफ़ा का भी भरोसा क्या है