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ग़ज़ल
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ
शायद इस ज़ख़्म को भरने में ज़माने लग जाएँ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में