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ग़ज़ल
तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
तिरी दास्ताँ कोई और थी मिरा वाक़िआ कोई और है
सलीम कौसर
ग़ज़ल
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
मिरी दास्ताँ का उरूज था तिरी नर्म पलकों की छाँव में
मिरे साथ था तुझे जागना तिरी आँख कैसे झपक गई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
शरह-ए-ग़म तो मुख़्तसर होती गई उस के हुज़ूर
लफ़्ज़ जो मुँह से न निकला दास्ताँ बनता गया