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ग़ज़ल
ग़ुल है पथराव है लड़कों का इक आह का लठ है हात मिरे
है सारा आलम एक तरफ़ दीवाना-ए-'उज़लत' एक तरफ़
वली उज़लत
ग़ज़ल
ढकी थी आतिश-ए-गुल ता-सर-ए-दीवार-ए-बाग़ अब के
ख़बर 'उज़लत' को नीं बुलबुल के ख़स-ख़ाना पे क्या गुज़रा
वली उज़लत
ग़ज़ल
चले हैं तोड़ने ज़िंदाँ को चंद दीवाने
सवाल-ए-अज़्मत-ए-ज़िंदाँ है देखिए क्या हो
ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी
ग़ज़ल
जब ये आलम हो तो लिखिए लब-ओ-रुख़्सार पे ख़ाक
उड़ती है ख़ाना-ए-दिल के दर-ओ-दीवार पे ख़ाक