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ग़ज़ल
रहगुज़र हो या मुसाफ़िर नींद जिस को आए है
गर्द की मैली सी चादर ओढ़ के सो जाए है
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
अतलस-ओ-कम-ख़्वाब में मल्बूस था जिस का बदन
क्यूँ मिरी मैली सी वो चादर उठा कर ले गया
वलीउल्लाह वली
ग़ज़ल
काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी
तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी
गुलज़ार
ग़ज़ल
शुक्र किया है इन पेड़ों ने सब्र की आदत डाली है
इस मंज़र को ग़ौर से देखो बारिश होने वाली है
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल
रात की चादर तह होने तक धूप का जादू खुलने तक
दरवाज़े के बंद किवाड़ों से इक बात छुपानी है