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ग़ज़ल
न तुमतराक़ को ने कर्र-ओ-फ़र को देखते हैं
हम आदमी के सिफ़ात ओ सियर को देखते हैं
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
फ़ैसला बिछड़ने का कर लिया है जब तुम ने
फिर मिरी तमन्ना क्या फिर मिरी इजाज़त क्यूँ
अंबरीन हसीब अंबर
ग़ज़ल
ख़लाओं में चला जाता हूँ अक्सर घूमने को मैं
ज़मीं पर फैली नफ़रत है ज़रूरत से ज़ियादा ही
आदित्य श्रीवास्तव शफ़क़
ग़ज़ल
ज़मीं से उट्ठी है या चर्ख़ पर से उतरी है
ये आग इश्क़ की यारब किधर से उतरी है
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सुब्ह को निकला था गरचे कर्र-ओ-फ़र से आफ़्ताब
मुँह फिराया हो ख़जिल उस इश्वा-गर से आफ़्ताब