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ग़ज़ल
उन का ग़म है अपना ग़म है अपने पराए सब का ग़म
शहर-ए-वफ़ा में फिर भी 'फ़रहत' और कई ग़म-ख़ाने हैं
फ़रहत क़ादरी
ग़ज़ल
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ