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ग़ज़ल
समझना फ़हम गर कुछ है तबीई से इलाही को
शहादत ग़ैब की ख़ातिर तो हाज़िर है गवाही को
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
तक़दीर पे शाकिर रह कर भी ये कौन कहे तदबीर न कर
वा बाब-ए-इजाबत हो कि न हो ज़ंजीर हिला ताख़ीर न कर
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
समझते हैं जो अपने बाप की जागीर मिट्टी को
बनाऊँगा मैं उन के पाँव की ज़ंजीर मिट्टी को
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
दिल-ए-वहशी तुझे इक बार फिर ज़ंजीर करना है
कि अब इस से मुलाक़ातों में कुछ ताख़ीर करना है
असअ'द बदायुनी
ग़ज़ल
ग़रीब आँख के घर में पले-बढ़े हैं ख़्वाब
तभी तो नींद की क़ीमत समझ रहे हैं ख़्वाब