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ग़ज़ल
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तिरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
अमानत सौंप कर बुनियाद भी हश्र-आफ़रीं रख दी
जहाँ से एक मुट्ठी ख़ाक उठाई थी वहीं रख दी
सिराज लखनवी
ग़ज़ल
इस नुमाइश-गाह में कब तक हवस-कारी करूँ
कोई तोहफ़ा ले के घर चलने की तय्यारी करूँ
मिद्हत-उल-अख़्तर
ग़ज़ल
बन के किस शान से बैठा सर-ए-मिंबर वाइ'ज़
नख़वत-ओ-उज्ब हयूला है तो पैकर वाइ'ज़