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ग़ज़ल
यूँ मिरे होने को मुझ पर आश्कार उस ने किया
मुझ में पोशीदा किसी दरिया को पार उस ने किया
अमीर इमाम
ग़ज़ल
ज़मानों के ख़राबों में उतर कर देख लेता हूँ
पुराने जंगलों में भी समुंदर देख लेता हूँ
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
ऐ क़लंदर आ तसव्वुफ़ में सँवर कर रक़्स कर
इश्क़ के सब ख़ारज़ारों से गुज़र कर रक़्स कर