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ग़ज़ल
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
इलाज-ए-दर्द में भी दर्द की लज़्ज़त पे मरता हूँ
जो थे छालों में काँटे नोक-ए-सोज़न से निकाले हैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जिस का अमल है बे-ग़रज़ उस की जज़ा कुछ और है
हूर ओ ख़ियाम से गुज़र बादा-ओ-जाम से गुज़र
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मस्त नज़रों से अल्लाह बचाए मह-जमालों से अल्लह बचाए
हर बला सर पे आ जाए मेरी हुस्न वालों से अल्लह बचाए
अज्ञात
ग़ज़ल
कहते हैं जिस को हूर वो इंसाँ तुम्हीं तो हो
जाती है जिस पे जान मिरी जाँ तुम्हीं तो हो
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
भरोसा कर नहीं सकते ग़ुलामों की बसीरत पर
कि दुनिया में फ़क़त मर्दान-ए-हूर की आँख है बीना
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हूर ओ फ़रिश्ता हैं असीर मेरे तख़य्युलात में
मेरी निगाह से ख़लल तेरी तजल्लियात में