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ग़ज़ल
रोज़ कहाँ से कोई नया-पन अपने आप में लाएँगे
तुम भी तंग आ जाओगे इक दिन हम भी उक्ता जाएँगे
बशर नवाज़
ग़ज़ल
बरसों जो नज़र तूफ़ानों के आग़ोश में पलती रहती है
उस मस्त नज़र की हर जुम्बिश अफ़्साने उगलती रहती है
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी
ग़ज़ल
रंग हवा से छूट रहा है मौसम-ए-कैफ़-ओ-मस्ती है
फिर भी यहाँ से हद्द-ए-नज़र तक प्यासों की इक बस्ती है
राही मासूम रज़ा
ग़ज़ल
अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते
पहुँचते जा लब-ए-साक़ी कूँ पैमाने हुए होते