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ग़ज़ल
अहल-ए-तूफ़ाँ बे-हिसी का गर यही आलम रहा
मौज-ए-ख़ूँ बन कर हर इक सर से गुज़र जाएगी रात
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
'रहीम' आलाम का हद-ए-नज़र तक इक समुंदर है
हो मुमकिन तो ख़ुशी का इस में इक तूफ़ान पैदा कर
रऊफ़ रहीम
ग़ज़ल
मिरे रोज़-ओ-शब का आलम न समझ सकेंगे 'राही'
जो ज़वाल से न गुज़रे जो कमाल तक न पहुँचे
मुसतफ़ा राही
ग़ज़ल
ज़मीं पे खुलती रही हैं कलियाँ फ़लक पे तारे उगा किए हैं
यही करिश्मे हुआ करेंगे यही करिश्मे हुआ किए हैं
ख़ुर्शीदुल इस्लाम
ग़ज़ल
यही आलम रहा गर शौक़ की आईना-बंदी का!
तो गुम हो जाएगा जल्वों में शौक़-ए-ख़ुद-निगर मेरा
परवेज़ शाहिदी
ग़ज़ल
मुसलसल इश्क़ में आलम रहा शब-ज़िंदा-दारी का
सर-ए-मक़्तल पहुँच कर तेरे दीवानों को नींद आई
अब्दुल क़वी ज़िया
ग़ज़ल
आलम निज़ामी
ग़ज़ल
गर यही आलम रहा ज़ौक़-ए-हिजाब-ए-हुस्न का
राज़-ए-दिल इफ़्शा न कर दे कोई दीवाना तिरा
बिशन दयाल शाद देहलवी
ग़ज़ल
दुनिया से रह-रवान-ए-मोहब्बत गुज़र गए
इस कारवाँ का आलम-ए-हस्ती ग़ुबार था
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
ग़ज़ल
फिर वही आशुफ़्तगी हो फिर वही दीवानगी
दिल पे यारब फिर जुनून-ए-इश्क़ का 'आलम रहे