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ग़ज़ल
ख़ार देहलवी
ग़ज़ल
'ख़ार' है जल्वा-ए-अस्नाम से दिल ख़ुल्द-ए-बरीं
या परी-ज़ादों का मजमा' है परी-ख़ाने में
ख़ार देहलवी
ग़ज़ल
क़दम ले कर कलेजे से लगाते हैं कभी उस को
कभी होते हैं हम चश्म ओ लब ओ रुख़्सार के सदक़े
ख़ार देहलवी
ग़ज़ल
ये फ़र्ज़ानों की दुनिया एक दीवानों की दुनिया है
जो पुख़्ता-कार-ए-उल्फ़त हैं उन्हें कहते हैं सौदाई
ख़ार देहलवी
ग़ज़ल
न इतरा ऐ दिल-ए-नादाँ किसी के अहद-ओ-पैमाँ पर
कि क़ौल ओ फ़ेल क्या लोगों की तहरीरें बदलती हैं
ख़ार देहलवी
ग़ज़ल
ख़ार देहलवी
ग़ज़ल
बादशाहों की तरह फिरते हैं डंके देते
ख़ार-ए-पा चोब हैं और आबले नक़्क़ारे हैं