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ग़ज़ल
अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें
ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
अगर हो इश्क़ तो है कुफ़्र भी मुसलमानी
न हो तो मर्द-ए-मुसलमाँ भी काफ़िर ओ ज़िंदीक़