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ग़ज़ल
और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का
सुब्ह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
तल्ख़ियाँ बढ़ गईं जब ज़ीस्त के पैमाने में
घोल कर दर्द के मारों ने पिया ईद का चाँद
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
दिल के मारों का न कर ग़म कि ये अंदोह-नसीब
ज़ख़्म भी दिल में न होता तो कराहे जाते