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ग़ज़ल
'ग़ालिब' मिरे कलाम में क्यूँकर मज़ा न हो
पीता हूँ धोके ख़ुसरव-ए-शीरीं-सुख़न के पाँव
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
नहीं जाह-ओ-नसब से नामवर 'इक़बाल' या 'ग़ालिब'
‘अलम-बरदार-ए-शोहरत उन के रशहात-ए-क़लम निकले
बरतर मदरासी
ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
ब-खूँ-ग़ल्तीदा-ए-सद-रंग दा'वा पारसाई का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कोई समझे कि न समझे तिरे अशआ'र 'कलीम'
ज़ोर-ए-'ग़ालिब' भी है और दिलकशी-ए-'मीर' भी है