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ग़ज़ल
मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से मय-ए-इशरत-ए-शबाना
मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल
शोर-ए-दरिया-ए-वफ़ा इशरत-ए-साहिल के क़रीब
रुक गए अपने क़दम आए जो मंज़िल के क़रीब
इफ़्तिख़ार आज़मी
ग़ज़ल
वफ़ादारी जो अपनी जुर्म बन जाती न ऐ 'इशरत'
ग़म-ए-ज़िंदाँ न होता और न ये दार-ओ-रसन होते
इशरत जहाँगीरपूरी
ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
नशा उतरा मगर अब भी तुम्हारी मस्त आँखों से
पिए थे जो मय-ए-उल्फ़त के साग़र याद आते हैं