अगर अर्बाब-ए-गुलशन में वफ़ाओं के चलन होते
अगर अर्बाब-ए-गुलशन में वफ़ाओं के चलन होते
शिकंजे में न फिर सय्याद के अहल-ए-चमन होते
मसाइल का ख़ुलूस-ए-दिल से मिल कर फ़ैसला करते
तो इतनी कश्मकश में क्यों ये शैख़-ओ-बरहमन होते
कभी हँस कर न सुनते फिर मिरा अफ़्साना-ए-ग़मगीं
जो तुम भी मुब्तला-ए-गर्दिश-ए-रंज-ओ-मेहन होते
तुम्हारी बज़्म-ए-रंगीं तो नज़र को ख़ीरा करती है
कहीं ऐसे में तुम भी इस जगह जल्वा-फ़गन होते
हसीं धोके में रहबर के जो आ जाते न ऐ हमदम
न हम बे-ख़ानुमाँ होते न हम फिर बे-वतन होते
तसद्दुक़ में ख़ुश-इल्हानी के शा'इर बन गए वर्ना
कहाँ मुमकिन था तुम वाबस्ता-ए-अहल-ए-सुख़न होते
वफ़ादारी जो अपनी जुर्म बन जाती न ऐ 'इशरत'
ग़म-ए-ज़िंदाँ न होता और न ये दार-ओ-रसन होते
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