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ग़ज़ल
'मोमिन' वो ग़ज़ल कहते हैं अब जिस से ये मज़मून
खुल जाए कि तर्क-ए-दर-ए-बुत-ख़ाना करेंगे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
नहीं आसाँ कि इंसाँ में फ़रिश्ते की हो ख़ू पैदा
शिकस्त-ए-आरज़ू करती है तर्क-ए-आरज़ू पैदा