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ग़ज़ल
अगर होता वो 'मजज़ूब'-ए-फ़रंगी इस ज़माने में
तो 'इक़बाल' उस को समझाता मक़ाम-ए-किबरिया क्या है
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
'मज्ज़ूब' कभी सोज़ कभी साज़ है तुझ में
तू 'मीर' कभी और कभी 'सौदा' नज़र आया
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
ये लफ़्ज़-ए-सालिक-ओ-मज्ज़ूब की है शरह ऐ 'बेदम'
कि इक हुश्यार-ए-ख़त्म-उल-मुर्सलीं और एक दीवाना
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
तसद्दुक़ इस्मत-ए-कौनैन उस मज्ज़ूब-ए-उल्फ़त पर
जो उन का ग़म छुपाए और ख़ुद बद-नाम हो जाए
शेरी भोपाली
ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए
हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
वो कहते हैं न समझूँगा तुझे 'मज्ज़ूब' मैं आशिक़
कि जब तक कूचा ओ बाज़ार में रुस्वा न देखूँगा
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
सड़ी दीवाना सौदाई जो चाहे सो कहे दुनिया
हक़ीक़त-बीं मगर 'मज्ज़ूब' को आक़िल समझते हैं