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ग़ज़ल
हसरतें रोती रहें दिल में मुजाविर की तरह
दिल मगर चुप ही रहा लौह-ए-मक़ाबिर की तरह
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
ऐ बसा कोहना इमारात-ए-मक़ाबिर जिन के
लोगों ने चोब-ओ-चगल के लिए तोड़े पत्थर
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
हम पास से तुम को क्या देखें तुम जब भी मुक़ाबिल होते हो
बेताब निगाहों के आगे पर्दा सा ज़रूर आ जाता है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं 'अकबर'
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूँ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था
हबीब जालिब
ग़ज़ल
ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए
मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं
हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं