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ग़ज़ल
ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
कि जैसे इक दिया हूँ और हवा की ज़द पे रक्खा हूँ
ज़ुबैर रिज़वी
ग़ज़ल
वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म था बर्ग-ए-हिना के होते हुए
ज़ुबैर रिज़वी
ग़ज़ल
रिवाक़-ए-कहकशाँ से भी हो आगे तक गुज़र तेरा
कि तेरा इश्क़ है मंज़िल तिरी अज़्म-ए-सफ़र तेरा
फ़रहत नादिर रिज़्वी
ग़ज़ल
मुझे तुम शोहरतों के दरमियाँ गुमनाम लिख देना
जहाँ दरिया मिले बे-आब मेरा नाम लिख देना
ज़ुबैर रिज़वी
ग़ज़ल
बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो
तअल्लुक़ की गिराँबारी में थोड़ी नर्मियाँ रख दो
ज़ुबैर रिज़वी
ग़ज़ल
उलझनें इतनी थीं मंज़र और पस-मंज़र के बीच
रह गई सारी मसाफ़त मील के पत्थर के बीच