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ग़ज़ल
इस जहाँ में मैं ही मस्जूद-ए-मलाइक था 'सदीद'
इस जहाँ में आज के इंसाँ से शर्मिंदा हूँ मैं
अनवर सदीद
ग़ज़ल
साजिद-ओ-मस्जूद हम बाहम थे हम दोनों का दिल
का'बे का का'बा था और बुत-ख़ाने का बुत-ख़ाना था
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
दिल में महबूब का घर हो तो ग़ज़ल होती है
कोई मस्जूद-ए-नज़र हो तो ग़ज़ल होती है
तुफ़ैल होशियारपुरी
ग़ज़ल
मैं कि मस्जूद-ए-मलाइक था कभी दावर-ए-हश्र
मेरे आ'माल पर उन से ही मदद है हद है
शहज़ाद अंजुम बुरहानी
ग़ज़ल
सोज़-ए-दिल पास-ए-वफ़ा दर्द-ए-जिगर है कि नहीं
जो था मस्जूद-ए-मलाइक वो बशर है कि नहीं
सय्यदा फ़रहत
ग़ज़ल
मेरा महबूब-ए-नज़र और मिरा मस्जूद-ए-ख़याल
कोई पत्थर का सनम हो ये ज़रूरी तो नहीं