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ग़ज़ल
जाती हुई मय्यत देख के भी वल्लाह तुम उठ के आ न सके
दो चार क़दम तो दुश्मन भी तकलीफ़ गवारा करते हैं
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
देख ले मेरी मय्यत का मंज़र लोग कांधा बदलते चले हैं
एक तेरी भी डोली चली है कोई कांधा बदलता नहीं है
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
डूबने वाले की मय्यत पर लाखों रोने वाले हैं
फूट फूट कर जो रोते हैं वही डुबोने वाले हैं
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
हमारी मय्यत पे तुम जो आना तो चार आँसू बहा के जाना
ज़रा रहे पास-ए-आबरू भी कहीं हमारी हँसी न करना
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
नासिर निज़ामी
ग़ज़ल
वो उट्ठा शोर-ए-मातम आख़िरी दीदार-ए-मय्यत पर
अब उट्ठा चाहती है ना'श-ए-'फ़ानी' देखते जाओ
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
अजब ही ख़्वाब दिखाई दिया मुझे 'मोहसिन'
कल आफ़्ताब की मय्यत उठा रहा था मैं
मोहसिन आफ़ताब केलापुरी
ग़ज़ल
किसी के संग-ए-दर से अपनी मय्यत ले के उट्ठेंगे
यही पत्थर पए तावीज़-ए-तुर्बत ले के उट्ठेंगे