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ग़ज़ल
मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है
जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
आरज़ू कब कोई मोहताज-ए-बयाँ होती है
ख़ामुशी ख़ुद ही मोहब्बत की ज़बाँ होती है
सूफ़ी अय्यूब ज़मज़म
ग़ज़ल
हाए ना-क़द्री-ए-जज़्बात-ए-मोहब्बत कि 'हज़ीं'
सुनने वालों ने मुझे सिर्फ़ ग़ज़ल-ख़्वाँ समझा
हक़्क़ी हज़ीं
ग़ज़ल
अगर अल्फ़ाज़ से ग़म का इज़ाला हो गया होता
हक़ीक़त तो न होती बस दिखावा हो गया होता
सबीला इनाम सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
ऐ अज़्म-ए-मुकम्मल जो सहारा तिरा पाऊँ
दुनिया के अंधेरे में नई शम्अ' जलाऊँ
हकीम मज़हर सुब्हान उस्मानी
ग़ज़ल
कहाँ है अपनी मंज़िल और किसे मंज़िल समझते हैं
न इतना होश है हम को न ये ऐ दिल समझते हैं