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ग़ज़ल
मैं वो मुर्दा हूँ कि आँखें मिरी ज़िंदों जैसी
बैन करता हूँ कि मैं अपना ही सानी निकला
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
ख़मोशी में निहाँ ख़ूँ-गश्ता लाखों आरज़ूएँ हैं
चराग़-ए-मुर्दा हूँ मैं बे-ज़बाँ गोर-ए-ग़रीबाँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
पटख़ देता है साहिल पर समुंदर मुर्दा जिस्मों को
ज़ियादा देर तक अंदर के खोट अंदर नहीं रहते
नाज़ ख़यालवी
ग़ज़ल
दिल-ए-मुर्दा दिल नहीं है इसे ज़िंदा कर दुबारा
कि यही है उम्मतों के मर्ज़-ए-कुहन का चारा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं वो मुर्दा हूँ कि आँखें मिरी ज़िंदों जैसी
बैन करता हूँ कि मैं अपना ही सानी निकला
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
जो ग़ाफ़िल थे हुशियार हुए जो सोते थे बेदार हुए
जिस क़ौम की फ़ितरत मुर्दा हो उस क़ौम को ज़िंदा कौन करे
दिल शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
इलाही क्यूँ तन-ए-मुर्दा में जाँ नहीं आती
वो बे-नक़ाब हैं तुर्बत के पास बैठे हैं
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
भटकता दर-ब-दर रहता हूँ मैं वहशत के साए में
मिरी मुर्दा जवानी है उदासी से घिरा हूँ मैं