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ग़ज़ल
याद थीं हम को भी रंगा-रंग बज़्म-आराईयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हम न कहते थे कि नक़्श उस का नहीं नक़्क़ाश सहल
चाँद सारा लग गया तब नीम-रुख़ सूरत हुई
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
वो उट्ठा शोर-ए-मातम आख़िरी दीदार-ए-मय्यत पर
अब उट्ठा चाहती है ना'श-ए-'फ़ानी' देखते जाओ
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
नश्शे के पर्दे में है महव-ए-तमाशा-ए-दिमाग़
बस-कि रखती है सर-ए-नश-ओ-नुमा मौज-ए-शराब
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कर ज़रा और भी ऐ जोश-ए-जुनूँ ख़्वार ओ ज़लील
मुझ से ऐसा हो कि नासेह को भी आर आ जाए
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
क्यूँ हज़रत-ए-मूसा की तरह ना'श में 'नस्साख़'
गर तुम ने बुत-ए-होश-रुबा को नहीं देखा