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ग़ज़ल
सहर ख़ुर्शीद लावे गर तुम्हारे सामने गुर्दा
समझ कर 'मुसहफ़ी' तुम उस को अपना नाश्ता चक्खो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
भरा है नेमत-ए-अलवाँ से गुल का ख़्वान गो 'हसरत'
करे हर सुब्ह उठ कर ख़ून-ए-दिल से नाश्ता बुलबुल
हसरत अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मुझे पिछली शब की ख़ुनुक रवी ने ही सुब्ह-दम ये शुनीद दी
मैं धनक की ओढ़ के ओढ़नी करूँ नाश्ता नई धूप का