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ग़ज़ल
ठोकर से अपने पाँव के गुलशन में ख़ुश-क़दाँ
सद फ़ित्ना-हा-ए-ख़ुफ़्ता जगा कर चले गए
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मौज-ए-दरिया की तरह रक़्स-कुनाँ रहते हैं
हम से मत पूछिए किस वक़्त कहाँ रहते हैं