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ग़ज़ल
बस एक लम्हे को चमकी थी उस की तेग़-ए-नज़र
ख़ला-ए-वक़्त में क़रनों के सर निकल आए
अरशद अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
क़िस्सा क़रनों में न तय होता वो दम-भर में हुआ
फ़ज़्ल मुर्शिद का ये इज़हार है अल्लाह अल्लाह
मरदान सफ़ी
ग़ज़ल
सदियों की तारीख़ यहाँ क़िर्तास-ए-हवा पर लिक्खी है
क़रनों के अफ़्साने हम से कोह-ओ-बयाबाँ कहते हैं
फ़ारिग़ बुख़ारी
ग़ज़ल
सदहा गहरी सोच में डूबी सदियाँ हम पर सर्फ़ हुईं
इक दो बरस की बात नहीं हम क़रनों में ता'मीर हुए
बशीर अहमद बशीर
ग़ज़ल
क़रनों पे है मुहीत ग़म-ए-ज़ात-ओ-काएनात
सदियों से हो रहा है ये हर्फ़-ए-वफ़ा का रक़्स
शाहिदा लतीफ़
ग़ज़ल
हर फ़सील-ए-राह को ज़ेर-ओ-ज़बर करते हुए
मैं यहाँ पहुँचा हूँ क़रनों का सफ़र करते हुए
सय्यद मुजीबुल हसन
ग़ज़ल
मैं क़रनों की तरह बिखरा पड़ा हूँ दोनों वक़्तों में
मिरी जल्वत ज़ियादा है मिरी ख़ल्वत ज़ियादा है