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ग़ज़ल
सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'
रेल की सीटी बजी तो दिल लहू से भर गया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
कुछ बरस तो तिरी याद की रेल दिल से गुज़रती रही
और फिर मैं ने थक हार के एक दिन पटरियाँ खोल दीं
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
महसूस हो रहा है कि मैं ख़ुद सफ़र में हूँ
जिस दिन से रेल पर मैं तुझे छोड़ने गया