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ग़ज़ल
सारे रिंद औबाश जहाँ के तुझ से सुजूद में रहते हैं
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझ को इमाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम है
ये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
अभी रात कुछ है बाक़ी न उठा नक़ाब साक़ी
तिरा रिंद गिरते गिरते कहीं फिर सँभल न जाए
अनवर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
मोहतसिब की ख़ैर ऊँचा है उसी के फ़ैज़ से
रिंद का साक़ी का मय का ख़ुम का पैमाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
शहर का शहर ही नासेह हो तो क्या कीजिएगा
वर्ना हम रिंद तो भिड़ जाते हैं दो-चार के साथ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
वाइ'ज़ से रह-ओ-रस्म रही रिंद से सोहबत
फ़र्क़ इन में कोई इतना ज़ियादा तो नहीं था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
ज़हीर देहलवी
ग़ज़ल
ले रहा है दर-ए-मय-ख़ाना पे सुन-गुन वाइ'ज़
रिंदो हुश्यार कि इक मुफ़सिदा-पर्दाज़ आया