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ग़ज़ल
जिस हर्फ़ के लिखने में हो दिल का लहू शामिल
उस हर्फ़ से फ़र्दा के रुज्हान निकलते हैं
फ़रासत रिज़वी
ग़ज़ल
इम्कान वही पैमाने वही रुज्हान वही अफ़्साने वही
दीवाने वही 'एहसाँ' लेकिन ज़ंजीर बदलती रहती है
एहसान दरबंगावी
ग़ज़ल
रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-मह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो
वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी