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ग़ज़ल
झलकता है मिज़ाज-ए-शहरयारी हर बुन-ए-मू से
ब-ज़ाहिर 'ख़ैर' हर्फ़-ए-ख़ाकसारी ले के निकला है
रऊफ़ ख़ैर
ग़ज़ल
ये तिरे दरिया सलामत ये तिरे बादल ब-ख़ैर
लुट रहे हैं ख़ुम पे ख़ुम साबित है मय-ख़ाना तिरा
लुत्फ़ुर्रहमान
ग़ज़ल
आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ
मुझ तक ख़ुदा के वास्ते ज़ालिम शिताब आ