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ग़ज़ल
मिरे शाह-ए-सुलैमाँ-जाह से निस्बत नहीं 'ग़ालिब'
फ़रीदून ओ जम ओ के ख़ुसरव ओ दाराब ओ बहमन को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मिल मुझ से ऐ परी तुझे क़ुरआन की क़सम
देता हूँ तुझ को तख़्त-ए-सुलैमान की क़सम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हम जाह-ओ-हशम याँ का क्या कहिए कि क्या जाना
ख़ातिम को सुलैमाँ की अंगुश्तर-ए-पा जाना
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
'दर्द' हर-चंद मैं ज़ाहिर में तो हूँ मोर-ए-ज़ईफ़
ज़ोर निस्बत है वले मुझ को 'सुलैमान' के साथ
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
दिया मेरे जनाज़े को जो कांधा उस परी-रू ने
गुमाँ है तख़्ता-ए-ताबूत पर तख़्त-ए-सुलैमाँ का
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
यूँ उठती हैं अंगड़ाई को वो मरमरीं बाँहें
जैसे कि 'अदम' तख़्त-ए-सुलैमाँ नहीं उठता