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ग़ज़ल
वही सुब्ह का धुंधलका वही मंज़िलें वही शब
कोई क्या समझ सकेगा ग़म-ए-ज़िंदगी का मतलब
होश बिलग्रामी
ग़ज़ल
मुझे याद हैं वो दिन जो तिरी बज़्म में गुज़ारे
वो झुकी झुकी निगाहें वो दबे दबे इशारे
होश बिलग्रामी
ग़ज़ल
होश मंज़िल खो के मंज़िल का पता पाते हैं लोग
तर्क-ए-लज़्ज़त में तो कुछ लज़्ज़त सिवा पाते हैं लोग
माहिर बिलग्रामी
ग़ज़ल
सुरूर-ओ-कैफ़ के आलम में अपनी होश खो बैठे
'नज़र' की चोट खा कर महव-ए-जल्वा हो गए हम तुम
नज़र बर्नी
ग़ज़ल
क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार देखी गर लब-ए-ख़ामोश की
क्यों करेगा आज़माइश सब्र-ए-पर्दा-पोश की
डॉ. हबीबुर्रहमान
ग़ज़ल
अव्वल तो जल्वा-गाह में दिल की बिसात क्या
दिल है जुनूँ-नवाज़ तो फिर एहतियात क्या