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ग़ज़ल
वक़्त के इक कंकर ने जिस को अक्सों में तक़्सीम किया
आब-ए-रवाँ में कैसे 'अमजद' अब वो चेहरा जोड़ूँगा
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
ये अपने आप को तक़्सीम कर लेता है सूबों में
ख़राबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
पानी की तक़्सीम के पीछे जलते खेत सुलगते घर
और खेतों की ज़र्द मुंडेरों पर कुम्हलाती दो-पहरें
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
मोहब्बत ना-रवा तक़्सीम की क़ाएल नहीं फिर भी
मिरी आँखों को आँसू तेरे होंटों को हँसी दी है
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
बाबू-जी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुईं तब
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से आई अम्माँ
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
घर की तक़्सीम वसिय्यत के मुताबिक़ होगी
फिर भी क्यों मुझ को सगे भाई से डर लगता है